आज के आधुनिक युग में अनेक मानसिक तथा सामाजिक कारको के कारण व्यक्ति मानसिक रोगों के शिकार हो रहे हैं। मानसिक रोगों के उपचार तथा बचाव के लिए प्रयास किए जा रहे हैं पर फिर भी मानसिक रोगियों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही है।
हमारा मस्तिष्क हमारी सारी क्रियाओं तथा विचारों का केंद्र बिंदु है। जब तक यह ठीक से कार्य करता रहता है, हमारा व्यवहार सामान्य रहता है। इसके कार्य में थोड़ी सी भी अव्यवस्था आने पर हमारा व्यवहार बदल जाता है। विचार शक्ति का तारतम्य टूटने लगता है। इस स्थिति में हमारा व्यवहार असामान्य होने लगता है। यह सामान्यता कभी-कभी इतनी अल्प होती है की इससे दूसरे व्यक्ति अधिक प्रभावित नहीं होते या परिवार और समाज में इसमें कोई अव्यवस्था नहीं उत्पन्न होती। इनके और सामान्य व्यक्तियों के व्यवहार में बहुत कम अंतर होता है।
इसके विपरीत कुछ मनोरोगी असामान्यता से बहुत गहरे रूप से प्रभावित होते हैं। इनका सारा विचार एवं व्यवहार अस्त व्यस्त हो जाता है।
लगभग सभी प्रकार के मानसिक रोगों का मूल कारण तनाव है। सामान्यता यह देखा गया है की तनाव मुख्य रूप से दो कारणों से उत्पन्न होता है।
1. वाह्य वातावरण में उपस्थित कारक तथा
2. व्यक्ति के भीतर व्यक्तिगत कारक।
अतः तनाव संबंधी रोगों के उपचार तथा बचाव के लिए दो मापदंड होना आवश्यक है
* वाह्य वातावरण के कारको को कम करने का मापदंड
* व्यक्ति के भीतर परिस्थिति से लड़ने की क्षमता तथा प्रकृति का विकास।
भारत में हजारों वर्षों से योग का अभ्यास किया जा रहा है। यह अलग बात है कि मानसिक रोगों के रोकथाम तथा उपचार में युवकों योग के महत्व को हाल में दुनिया के अन्य देशों जैसे अमेरिका, इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी आदि ने भी पहचाना है।
यौगिक उपचार का सीधा संबंध व्यक्ति को भीतर से मजबूत बनाना तथा उसकी उसमें परिस्थिति से लड़ने की ताकत पैदा करने से है।
स्वास्थ्य के संबंध में योग का संबंध बचाव, उपचार तथा विकास तीनों से है। दूसरे शब्दों में योग मानसिक रोगों को उत्पन्न होने से रोकता है, मानसिक रोगों के लक्षणों का निराकरण करता है तथा व्यक्ति मे अच्छे गुणों का विकास कर परिस्थिति से लड़ने की क्षमता विकसित करता है।
दूसरे शब्दों में कहे तो उसका व्यक्तित्व पूरी तरह से विघटित हो जाता है। वह पारिवारिक एवं सामाजिक नियमों की खुली अवहेलना करता है। परिस्थितियों की उससे कोई समझ नहीं होती।
कर्म योग साधना एक ऐसा मार्ग है, जिससे लौकिक एवं पारलौकिक दोनों पक्षों का उत्थान होता है। इस साधना के लिए सन्यास लेने या कहीं वन में जाकर रहने की आवश्यकता नहीं है। बल्कि गृहस्थ में रहते हुए भी मनुष्य कर्म योग का साधक हो सकता है और फल की इच्छा को त्याग कर कर्म करता हुआ भी मुक्ति को प्राप्त कर सकता है।
कोई भी व्यक्ति कर्म किए बिना नहीं रह सकता। जीवन का आधार श्वास की प्रक्रिया भी एक कर्म है। जब कर्म में योग शब्द जुड़ जाता है तो इसका अर्थ होता है सजगता के साथ क्रिया। जब कोई व्यक्ति किसी क्रिया को पूर्ण सजगता तथा बिना किसी आसक्ति या अपेक्षा के साथ करता है तो वह कर्म योग कहलाता है।
दैनिक जीवन में हम हजारों क्रियाएं करते हैं पर अक्सर वे सब अपेक्षा युक्त होते हैं। इस अपेक्षा या आसक्ति के कारण राग तथा द्वेष की उत्पत्ति होती है, जो आगे चलकर व्यक्ति को मानसिक रोगी बनाने में अहम भूमिका अदा करती है।
कर्म योग का अभ्यास मानसिक रोगो से बचाव तथा उनके उपचार मे बहुत उपयोगी है, क्योंकि यहां व्यक्ति किसी भी कार्य को अनासक्त भाव से करना सीखता है। इसके अलावा कर्म योग के अभ्यास से संस्कारों का क्षय होता है, तो अचेतन की गंदगी दूर होती है, जो मानसिक रोग की उत्पत्ति हुई अहम भूमिका निभाते है।
जब व्यक्ति पूर्ण सजगता के साथ किसी क्रिया को करता है तो धीरे-धीरे उसकी सजगता अवचेतन तथा अचेतन मन में जाने लगती है। वहां व्यक्ति का सामना अचेतन की गंदगी से होता है जब व्यक्ति उन अचेतन की अतृप्त इच्छाओं तथा लालसाओ को अनासक्त भाव से देखता है तो उसका क्षय हो जाता है। इस प्रकार कर्म योग के अभ्यास से मन की गंदगी दूर हो जाती है तथा संतुलित मानसिक स्वास्थ्य का विकास होता है।
भक्ति योग :: भक्ति योग के अभ्यास से व्यक्ति में उच्च प्रेम भाव का विकास होता है। जहां वह परम सत्ता के सामने अपने अहंकार को पूर्ण रूप से समर्पित कर देता है। जब भक्ति भाव का विकास होता है तो अहम का भाव समाप्त हो जाता है।
भक्ति योग के नियमित अभ्यास से व्यक्ति जीवन की समस्याओं के प्रति एक दूसरा दृष्टिकोण अपनाने लगता है। व्यक्ति सहनशील हो जाता है। जिससे विपरीत परिस्थितियों में भी वह अपना मानसिक संतुलन नहीं खोता है।
भजन कीर्तन के अभ्यास से मन की चंचलता समाप्त हो जाती हैं। भजन कीर्तन में तल्लीन हो जाने से चेतना का विस्तार होता है तथा मन नकारात्मक विचारों, भावो तथा संवेगो मुक्त हो जाता है।
फलत: मन शांत तथा स्थिर हो जाता है। अकेलापन का भाव, जो मानसिक रोग का एक प्रमुख कारण है, भक्ति योग के अभ्यास से दूर हो जाता है, क्योंकि भक्त स्वयं को हमेशा परमसत्ता के साथ अनुभव करता है। परमसत्ता के प्रति यह समर्पण उसके भीतर शांति तथा आनंद का संचार करता है।
जगदीश सिंह
Masters in Yogic Science
Level 1 Yoga Instructor ( Yoga Certification Board, Ayush Ministry ).
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