चाय : एक एहसास : डॉ विक्रम सिंह
इक चाह,
एक चाय की,
एक कड़क चाय की,
जिंदगी साथ तेरे
हमेशा रही है बाकी,
वो बारिश, बाढ़ का हो समां, वो तूफ़ान हो,
वो बर्ड के साथ जंगल में कहीं,
वो समां, काश वही ठहर जाता।
इक मुकम्मल जीवन था वो अपने आप में ,
जी लेता हूँ फिर से पल वो,
इक एहसास के साथ,
कि हाथ में जब भी आती है इक प्याली चाय
और याद तेरी।
तन्हाई में रही है साथ मेरे ये इक प्याला चाय,
जैसी तेरी याद रही है संग मेरे हर पल तन्हाई में।
इक चुस्की के साथ, बहुत कुछ निगल लेता हूँ
कि निगल लेता हूँ,
कुछ गम, कुछ अनकही बातें,
कुछ लम्हे जो रह गए सिर्फ यादों में।
इस तरह कुछ समेत लेती है ये भीतर अपने,
मेरे उन एहसासो को, जो जीवंत ना हुए कभी संग तेरे।
मिठास कम है जिंदगी में तुम बिन,
फीकी सी चाय ये अब एहसास दिलाती है,
कुछ दूध गायब है हुआ अब चाय से मेरी,
मिठास जिंदगी के साथ अब,
चाय में भी हुई है कम,
तेरी याद में चाय भी अब काली ही सुहाती है।
संग तेरे इक चाय की चाहत,
साथ मेरे, तेरी याद के साथ कही बाकी है खवाबों में अभी,
कि हर एक दिन मेरा, साल बराबर गुजरा है बिन तेरे।
जो कभी साल भी पलक झपकते गुजर जाते थे संग तेरे।
मैंने अकेले कभी चाय पी ही नहीं।
कि एक ही कप में, इक सिप
तेरे नाम का साथ में पीया है हमेशा।
तेरा संग होने का एहसास यूँ,
हर घूंट ने मुझे दिलाया है बार-बार।
कि कभी देखा ही नहीं मैंने अच्छा और ख़राब मौसम,
बस चाहा है तुम्हे हमेशा अपने चाय से इश्क की तरह।।
डॉ विक्रम सिंह
न्यू दिल्ली